भारत जोड़ो यात्रा: 1942 के आंदोलन में जिस अवधारणा की स्थापना हुई, उसे ये यात्रा फिर से गढ़ने में रही सफल – Navjivan

Follow Us
लैटिन साहित्य, विशेष रूप से वीर गाथाओं वाली कविताओं, महाकाव्यों के लिए महान लैटिन कवियों ने एक युक्ति तैयार की थी जिसे ‘सेजूरा’ कहते हैं। यह लंबी वीरगाथाओं में छंदों की लयबद्धता और शब्दों की गति के साथ तालमेल बनाने के लिए अल्पविराम या पॉज देने के लिए था। एक सुचिंतित विराम की तरह ही। यह महाकाव्य की लयात्मकता से सम्मोहित पाठक का ध्यान महाकाव्य के उन वाक्यांशों, शब्दों के अर्थ की ओर दिलाने के लिए था जहां वह डूबकर खो जाता था।
आज की न्यूरोलॉजी जब मानव मस्तिष्क को ‘पुनरावर्ती मस्तिष्क’ के तौर पर वर्णित करती है तो वह न्यूरांस की एक तुलना-योग्य चाल की ओर इशारा कर रही होती है। ‘मस्तिष्क की पुनरावर्ती क्षमता’ की अवधारणा मानव मस्तिष्क की न सिर्फ सोचने, बल्कि उन विचारों के बारे में सोचने की क्षमता की भी शिनाख्त करती है। इन दिनों ‘प्रतिबिम्ब’ शब्द को जिस तरह समझा जाता है, कुछ हद तक पुनरावर्ती मस्तिष्क क्या करता है, इसका एक हिस्सा बता सकता है। कविता में ‘कैसुरा’ वह उपकरण है जो पुनरावर्ती मस्तिष्क कैसे काम करता है, इसका ठोस उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह सोचने की प्रक्रिया के साथ-साथ चलने, साथ-साथ सोचने में मददगार होता है।
जहां तक ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का सवाल है, अब जबकि इसे कई रूपों में आगे भी जारी रखने की योजना है या जल्द ही इसका स्वरूप सामने आएगा, 30 जनवरी को इसके ‘कैसुरा’ के तौर पर याद किया जाना चाहिए। कैसुरा कोई बेकार का अल्पविराम नहीं है क्योंकि हाथ में लिए गए महाकाव्य पर तब तक काम जारी रहना चाहिए जब तक कि उसे पूरी तरह से उसकी परिणति तक न पहुंचा दिया जाए। एक ‘कैसुरा क्षण’ कथानक में अचानक किसी दूसरी दिशा में आया मोड़ भी नहीं है क्योंकि वह तो अब तक के सारे किए-धरे पर पानी फेर देगा। यह फुरसत वाला दीर्घविराम भी नहीं है क्योंकि किसी भी महाकाव्य की शुरुआत हो जाने के बाद उसमें विराम के लिए कोई स्थान नहीं रहता। यह एक तीव्र और अब  तक के हासिल, उसमें हुई प्रगति के साथ भविष्य की तैयारी की पृष्ठभूमि के तौर पर चिह्नित किया जा रहा है या हुआ है।
सितंबर में जब यात्रा शुरू हुई तो इसने हमें याद दिलाया कि महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जो शुरुआत की थी, अब भी जारी है। 1942 के आंदोलन में जिस अवधारणा की स्थापना हुई थी, उसे यह यात्रा प्रतीक तौर पर एक बार फिर से गढ़ने में सफल रही। इसने भारत को बढ़ती हिंसा और घृणा के माहौल से आजाद करने की जरूरत को रेखांकित करने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है। इसने साहस और करुणा पर आधारित विचारधारा की जमीन में एक नया शब्द ‘प्रेम’ जोड़ने और उसे प्रचारित करने का काम किया है।
जिन भी लोगों ने यह संदेश गहराई से महसूस किया, वे बार-बार सवाल पूछ रहे- अब आगे क्या? अब ‘जो किया जाना चाहिए’ की सूची की बात की जाए, तो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश में यात्रा की मूल भावना छिटककर शुद्ध रूप से ‘राजनीतिक मिशन’ पर जाकर टिक जाने का खतरा है। ‘यात्रा के बाद की घटनाओं और कामों’ की सूची प्रदान करने से यह स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीतिक परिवर्तन के लिए की गई कई अन्य यात्राओं से बहुत अलग नहीं रह जाएगी। दुनिया के सामने अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अपील की अब तक हासिल ऊंचाई बनाए रखने के लिए कैसुरा क्षण का इस्तेमाल ‘क्या नहीं करना है’ तय करने के लिए किया जाना जरूरी है। उदाहरण के लिए, सार्वजनिक जीवन में सांप्रदायिकता और जातीयता के विचारों पर ध्यान केंद्रित करने वाले कार्यों और विचारों की साफ तौर पर निंदा संदेश का एक हिस्सा हो सकता है। इसी तरह चुनावी सफलता के लिए समुदायों का इस्तेमाल न करना भी इस संदेश का हिस्सा हो सकता है।
सेजूरा क्षण का इस्तेमाल आज की कांग्रेस पार्टी और यात्रा के उदात्त लक्ष्यों के बीच तालमेल बिठाने के लिए किए जाने की जरूरत है। इनसे निपटना होगा। कोई शक नहीं, शक की गुंजाइश ही नहीं कि पार्टी को जीवित रहना है और राजनीतिक तौर पर सफल भी होना है। इसे राजनीतिक रूप से देश में हिंसा और घृणा के मूल श्रोतों से टकराने की जरूरत है। उनसे लड़ना होगा। हालांकि, यात्रा महज राजनीतिक या मुख्य रूप से राजनीतिक नहीं रही है। ऐसे में, यात्रा- एक अभूतपूर्व आंदोलन के रूप में और पार्टी को एक सुस्थापित संगठन के रूप में एक समीकरण तैयार करना होगा। एक-दूसरे की स्वायत्तता को नकारे बिना अपने स्थानों का सीमांकन करना होगा। इसका मतलब यह कि कांग्रेस पार्टी गठबंधन बनाने की दिशा में जो कदम उठाती है, उसे यात्रा से तैयार हुई भावनात्मक पूंजी के इस्तेमाल से दूर रखना होगा। दूसरी ओर, यात्रा के विस्तार को उन गैर-दलीय मंचों और समूहों में तलाशे जाने की जरूरत है जो विभिन्न चरणों में यात्रा के सहयात्री रहे हैं। दो चालों के बीच टर्फ-भ्रम (जमीनी हित) की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। फिर भी, यात्रा के दौरान हुई शुरुआत के साथ द्वंद्व-गतिकी का व्याकरण अगले कुछ महीनों में व्यवस्थित तो किया ही जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘नो कास्ट-नो कम्युनिटी’ के आधार पर उन जिलों में व्यापक स्तर पर सभाएं आयोजित की जा सकती हैं जिन पर यात्रा गई है। इनके लिए भारत के उन हिस्सों से लोगों के जोड़ा जा सकता है जहां यात्रा नहीं पहुंची। यह भारत के अन्य भागों में सटीक संदेश पहुंचाने और जटिलताओं से पार पाने का बेहतर तरीका होगा। इस काम का नेतृत्व यात्रा के ऐसे ‘स्थायी सहयात्रियों’ के समूह को करना चाहिए जिन्होंने पूरी दूरी पैदल तय की हो। जिस दिन यह सारी कवायद शुरू होगी और जब भारत के लोग जातिगत हितों या सामुदायिक हितों को किनारे रखकर यात्रा का मुहावरा अपनाना शुरू कर देंगे, तो वे लोग हिंसा और नफरत के खिलाफ लड़ाई भी खुद लड़ लेंगे। भारत के संविधान को दूसरा जीवनदान देने के लिए सरकार को बदलना सबसे बड़ी जरूरत है। फिर भी, अगर देश के मौजूदा हालात और एक राष्ट्र के तौर पर स्वतंत्र और आधुनिक भारत की उत्पति के प्रति धारणा को बदलने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ तो यह भी तय है कि महज सत्ता का परिवर्तन भारत को संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में अपने अस्तित्व के लिए आगे नहीं ले जा सकता। भारत के लोगों को संविधान और समधर्मी समाज वाली महान सांस्कृतिक विरासत के प्रति जिम्मेदार बनाने की दिशा में आंदोलन, यात्रा को आगे बढ़ाने की दिशा में सबसे उपयुक्त और भविष्योन्मुख कारवाई होगी। इसे पूरा करने के लिए लाखों कदम उस रास्ते पर चलते रहने की जरूरत है जिसे यात्रा में भारत के समक्ष प्रस्तुत किया है।
(जी.एन. देवी सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं)
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

source

About Summ

Check Also

The best movies leaving Netflix, HBO, and more in March to watch now – Polygon

Use your Google Account Forgot email?Not your computer? Use a private browsing window to sign …